पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की पुण्यतिथि आज,सीएम धामी ने दी श्रद्धांजलि

नमिता बिष्ट

आजादी के आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लेने वाले महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की आज पुण्यतिथि है। चन्द्र सिंह गढ़वाली उन रणबांकुरों में से एक थे जिनकी वीरता के कायल भारतीय ही नहीं बल्कि अंग्रेजी हुकूमत के शासक और दुनिया भर के लोग भी थे। उन्होंने 1930 में पेशावर में निहत्थे देशभक्त पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर साम्राज्यवादी अंग्रेजों की नींव हिलाकर रख दी थीं। उनके साहस को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। तो चलिए जानते है वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के साहस और वीरता के पराक्रम के बारे में……

मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने दी श्रद्धांजलि
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की पुण्यतिथि पर मुख्यमंत्री कैम्प कार्यालय में उनके चित्र पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर श्रद्धांजलि दी। मुख्यमंत्री ने कहा कि वे साहस, वीरता की प्रतिमूर्ति और महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे। वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी की शौर्य गाथा सदैव हमारी स्मृतियों में जीवंत रहेगी।

25 दिसंबर 1891 को पौड़ी में हुआ था जन्म
चंद्रसिंह का जन्म 25 दिसंबर 1891 को पौड़ी जिले के रौणसेरागांव (पट्टी चौथान) में जलौथ सिंह भंडारी के घर पर हुआ था। 3 सितंबर 1914 को वे सेना में भर्ती हुए। 1 अगस्त 1915 को उन्हें सैनिकों के साथ अंग्रेजों ने फ्रांस भेज दिया। 1 फरवरी 1916 को वे वापस लैंसडौन आ गये। इसके बाद 1917 में उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया युद्ध और 1918 में बगदाद की लड़ाई लड़ी। प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों ने उन्हें हवलदार से सैनिक बना दिया।

छुट्टी के दौरान हुई थी बापू से मुलाकात
चंद्रसिंह की सेना से छुट्टी के दौरान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से मुलाकात हुई। 1920 में चंद्रसिंह को बटालियन के साथ बजीरिस्तान भेजा गया। वापस आने पर उन्हे खैबर दर्रा भेजा गया और उन्हें मेजर हवलदार की पदवी भी मिल गई। इस दौरान पेशावर में आजादी की जंग चल रही थी। अंग्रेजों ने चंद्र सिंह को उनकी बटालियन के साथ पेशावर भेज दिया और इस आंदोलन को कुचलने के निर्देश दिए।

सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल थे चंद्रसिंह
पेशावर कांड के नायक वीर चंद्रसिंह गढ़वाली सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल थे। पठानों पर हिंदू सैनिकों की ओर से फायर करवाकर अंग्रेज भारत में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच फूट डालकर आजादी के आंदोलन को भटकाना चाहते थे, लेकिन वीर चंद्रसिंह गढ़वाली ने अंग्रेजों की इस चाल को न सिर्फ भांप लिया, बल्कि उस रणनीति को विफल कर वह इतिहास के महान नायक बन गए।

23 अप्रैल 1930 को पेशावर कांड हुआ था
दरअसल पेशावर में 23 अप्रैल 1930 को पठानों द्वारा विशाल जुलूस निकला था, जिसमें बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएं सभी शामिल थे। इसे कुचलने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत ने रॉयल गढ़वाल राइफल्स को तैनात किया गया था। यह भारत के इतिहास के उस दौर की बात है जब गांधी के दांडी मार्च को बीते तीन-चार हफ्ते ही बीते थे और सारा देश आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सेदारी करने को आतुर हो रहा था।

निहत्थों पर फायर करने से कर दिया मना
जब अंग्रेजों ने रायल गढ़वाल राइफल्स के सैनिकों को आंदोलनरत जनता पर फायरिग करने का हुक्म दिया, तो चंद्र सिंह ने ‘गढ़वाली सीज फायर’ कहते हुए निहत्थों पर फायर करने से मना कर दिया। बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपने पैरों तले जमीन खिसकती हुई सी महसूस होने लगी। बता दें कि 1857 के ग़दर के बाद यह भारत के इतिहास में घटी सैन्य विद्रोह की सबसे बड़ी घटना थी। बौखलाए अंग्रेजों ने हिंदुस्तानी सैनिकों को कत्लेआम का आदेश दिया। बड़ी संख्या में जानें गईं और चन्द्रसिंह गढ़वाली और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया।

हिंदुस्तानी सिपाही हिंदुस्तान की हिफाजत के लिए भर्ती हुए
आदेश न मानने पर अंग्रेजों ने चंद्रसिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चलाया। जब अंग्रेज़ कप्तान ने बगावत की वजह जाननी चाही तो चन्द्रसिंह गढ़वाली का उत्तर था – ” हम हिंदुस्तानी सिपाही हिंदुस्तान की हिफाजत के लिए भर्ती हुए हैं, न कि अपने भाइयों पर गोली चलाने के लिए!” कोर्टमार्शल के बाद सभी सिपाहियों को सज़ा हुई। लेकिन आजीवन कारावास के रूप में सबसे बड़ी सजा चन्द्रसिंह को मिली और उनकी संपत्ति भी जब्त कर ली गई। अलग-अलग जेलों में रहने के बाद 26 सितंबर 1941 को वे जेल से रिहा हुए।

महात्मा गांधी ने दी थी ‘गढ़वाली’ की उपाधि
इसके बाद वे महात्मा गांधी से जुड़ गए और भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। वीर चंद्रसिंह भंडारी को ‘गढ़वाली’ की उपाधि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दी थी। ‘गढ़वाली’ की उपाधि देते हुए महात्मा गांधी ने कहा था कि मेरे पास गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश कब का आजाद हो जाता।

लंबी बीमारी के बाद 1979 में ली अंतिम सांस
22 दिसंबर 1946 में वामपंथियों के सहयोग से चंद्र सिंह ने गढ़वाल में प्रवेश किया। 1967 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर हार गए। 1 अक्टूबर 1979 को उनका लंबी बीमारी के बाद दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में निधन हो गया। 1994 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद उनके नाम से कई योजनाएं चलाई गई। जिनमें पर्यटन, स्वरोजगार और मेडिकल कॉलेज के नाम से संचालित हैं।

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