आज लुप्त होने की कगार पर परेडू और रौडी

नमिता बिष्ट

आज का युग विज्ञान का युग है। आज हर जगह सिर्फ विज्ञान का ही बोलबाला है। 21वीं सदी तक आते आते विज्ञान ने बेहद तरक्की कर ली है। कलम से लेकर लैपटॉप तक सब कुछ विज्ञान की ही देन है। सच कहें तो आज पहाड़ में भी विज्ञान के इन चमत्कारी आविष्कारों की गूंज सुनाई देने लगी है। इसी का नतीजा है कि पहाड़ के क‌ई परंपरागत उपकरणों की जगह अब इन वैज्ञानिक उपकरणों ने ले ली है। हालांकि इन उपकरणों के सहयोग से पहाड़ के वाशिंदों की कठिनाइयां पहले से कम हों गई है, लेकिन यह भी सच है कि विज्ञान ने हमारे जीवन को आसान और आलसी बना दिया है। जिस वजह से आज पहाड़ों के पारंपरिक उपकरण धीरे धीरे सिमटते जा रहे हैं इन्हीं में से एक है परेडू और रौडी। जो आज लुप्त होने की कगार पर है। तो चलिए जानते है क्या है परेडू और रौडी…।

परेडू और रौडी में बनाया जाता है मठ्ठा
परेडू और रौडी तकनीक उत्तराखंड में मठ्ठा या छाछ बनाने की पारम्परिक तकनीक है। इस प्रकिया से मथे जाने वाली दही से स्वादिष्ट मठ्ठा या छाछ किसी और तकनीक से नहीं मिल सकता है। पहाड़ों में पुराने जमाने के लोग परेडू और रौडी में ही मट्ठा बनाया करते थे। हालांकि आज इन उपकरणों की जगह इलेक्ट्रानिक मशीनों ने ले ली है। अब पहाड़ों में भी इन मशीनों से मट्ठा बनाया जा रहा है। जिन लोगों ने परेडू देखा होगा उनको पता होगा कि उस जमाने में यह अपने आप में बहुत बड़ी और अनूठी ही तकनीक थी।

लकड़ी से ऐसे बनाया जाता है परेडू
परेडू और रौडी लकड़ी से बने होते हैं और यह लकड़ी पर अद्भुत कला का भी बेमिसाल उदाहरण है। दरअसल परेडू लगभग 2.5 से 3 फीट ऊंचाई का नीचे से फीट व्यास और ऊपर से 8 इंच से 10 इंच व्यास का शंकू आकृति का होता है। इसको अंदर से इस प्रकार काटा जाता है कि इसमें एक बार में कम से कम 5 से लीटर जमी दही को रखकर मथा जा सकता है।
लकड़ी से बनी होती है रौड़ी
दूध को मथने के लिए प्रयुक्त होने वाली रौड़ी भी लकड़ी से ही बनी होती है। यह लगभग 3 से 4 इंच व्यास का एक से फीट का डण्डा होता है, जिसके निचले सिरे को लगभग 1 फीट तक चार भागों में बाँट दिया जाता है । इन चारों भागों को एक दूसरे से समान दूरी पर एक छल्ले की मदद से फिक्स कर दिया जाता है । इस हिस्से को लगभग 5 से 6 इंच व्यास का बनाया जाता है जिससे वह परेडू में आसानी से घूस जाये। यहीं हिस्सा दही को मथने के कार्य में लाया जाता है।

ऐसे रखा जाता है परेडू रौडी को
परेडू को उस स्थान पर रखा जाता है जहाँ पर रौडी को रस्सी की मदद से घुमाने के लिए दीवार पर हुक्क पहले से लगाए हुए होते हैं । उन्हीं हुक्कों पर रौडी को फँसाया जाता है और रौडी के बीच में इसपर रस्सी को लपेट कर उसके दोनों सिरों को अपने हाथों में कसकर पकड़ लिया जाता है। रौडी का अगला भाग परेडू के अंदर कम से कम 15 फीट से 2 फीट अंदर जमी दही में डूबा हुआ होता है जिससे जब एक हाथ से पकड़े कोने को खींचते है तो रोडी पूर्वावर्ती दिशा और दूसरे हिस्से को खींचने पर उत्तरवर्ती दशा में घूमने लगती और अंदर रखी दही आसानी से मथने लगती है।

मट्ठा बनाने में लग जाता है इतना समय
मट्ठा बनाने में 1 मिनट से लेकर 45 मिनट तक का समय लग जाता है हालांकि यह जमी दही की मात्रा पर निर्भर करता है कि मट्ठा बनाने में कितना समय लगेगा। लेकिन वर्तमान समय में लोग यही काम मिक्सर ग्राइंडर या अन्य उपकरणों की मदद से करने लगे हैं जिस कारण अधिकांश घरों से परेडू और रौडी तकनीक भी गायब हो चुकी है। यह तकनीक अब पहाड़ों में बहुत कम ही घरों में प्रयोग में लाई जा रही है।

परेडू और रौडी तकनीक के फायदे
परेडू और रौडी से मट्ठा बनाने के कई फायदे भी है। इससे कंधों और छाती की पसलियों की जबरदस्त कसरत हो जाती है। जिससे शरीर के ऊपरी भाग में जकड़न जैसी समस्या कभी हो ही नहीं सकती। आज शहरों में लोग जकड़न जैसी समस्याओं से ग्रसित हैं और फिजियोथेरेपी में जाकर हजारों रुपये भर रहे हैं। लेकिन पहले जमाने के लोग इस समस्या से कोसो दूर रहते थे।

थोड़ी सी चूक हो सकती है जानलेवा
हमारे पहाड़ों में उपयोग होने वाले परंपरागत मटठा बनाने की विधि ही सर्वश्रेष्ठ थी। ये सच है कि आज इलेक्ट्रानिक मशीनों ने काम जरूर थोड़ा सुलभ किया और समय बचा लिया। लेकिन ये खतरे से भी खाली नहीं और इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि इन उपकरणों का उपयोग करते समय बेहद सावधानी बरतनी पड़ती है। नहीं तो क‌ई बार जरा सी चूक जानलेवा साबित हो जाती है। ऐसी ही एक घटना बीते महीने राज्य के चमोली जिले के पोखरी ब्लाक के एक गांव में देखने को मिली थी। जहां इलेक्ट्रॉनिक मशीन से मट्ठा बनाते समय करंट लगने से मां बेटी की मौके पर ही मौत हो गई थी।

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