गढ़वाल की महारानी कर्णावती जिसका पराक्रम देख डर जाते थे दुश्मन

नमिता बिष्ट

उत्तराखण्ड के इतिहास में ना सिर्फ इस क्षेत्र का धार्मिक और पौराणिक महत्व है, बल्कि यहाँ रहने वाली वीरांगनाओं के कारण भी यह प्रदेश जाना जाता है। इसलिए उत्तराखंड देवभूमि ही नहीं बल्कि वीरों की भूमि भी है। जिसके प्रमाण इतिहास के स्व‌र्णिम पन्नों मे भी दर्ज है। आज हम आपको ऐसी ही एक वीरांगना के बारे में बताने जा रहे है, जिसने न केवल उन मुगलों को हराया, जिनकी पूरे हिंदुस्तान में तूती बोला करती थी, बल्कि उनके लड़ाकों की भी नाक काटकर पूरी दुनिया में खलबली मचा दी थी। जी हां… हम बात कर रहे गढ़वाल के पंवार वंश की वीरांगना रानी कर्णावती। जिन्हें इतिहास में नाककटी रानी के रुप में जाना जाता है।

भारत की दस सबसे पराक्रमी रानियों में शामिल
रानी कर्णावती गढ़वाल के राजा महिपत शाह की पत्नी थी। गढ़राज्य में महिपत शाह एक पराक्रमी और निडर राजा थे। इन्होंने ही अपने शासनकाल में तिब्बत पर तीन बार आक्रमण किया था। इन्हें गर्वभंजन के उपनाम से जाना जाता था। इनके शासन में रिखोला लोदी और माधोसिंह जैसे सेनापति हुए थे, जिन्होंने तिब्बत के आक्रांताओं को छठी का दूध याद दिलाया था। वीर माधो सिंह भंडारी ने रानी कर्णावती को भी अपनी सेवाएं दी थी। बता दें कि रानी कर्णावती को भारत की दस सबसे पराक्रमी रानियों में से एक माना जाता है।

महिपत शाह के बाद पृथ्वी शाह गद्दी पर बैठे
महिपत शाह की मृत्यु के बाद रानी कर्णावती के पुत्र पृथ्वी शाह गद्दी पर बैठे। मगर वे उस समय महज 7 साल के थे। बता दें कि राजगद्दी पर पृथ्वी पतिशाह ही बैठे, लेकिन राजकाज उनकी मां रानी कर्णावती ने चलाया। यही कारण है कि जब दिल्ली में शाहजहां के शासन के दौरान मुगलों को उत्तराखण्ड में गढ़राज्य पर एक नारी के शासन का पता चला तो उन्होंने 1635 ई० में नजावत खान के नेतृत्व में एक बड़ी मुगल सेना गढ़वाल पर आक्रमण को भेजी।

शाहजहां के राज्याभिषेक का प्रस्ताव ठुकराया
बता दें कि इससे पहले जब महिपतशाह गढ़वाल के राजा थे, तब 14 फरवरी 1628 को शाहजहां का राज्याभिषेक हुआ था। तब महिपतशाह को भी निमंत्रण दिया गया, लेकिन महिपतशाह ने उनका निमंत्रण ठुकरा दिया। हालांकि कहने को तो ये निमंत्रण था लेकिन इसकी तासीर किसी आदेश से कम नहीं थी। क्योंकि मुग़लिया निमंत्रण मिलने पर भी उनके समारोह में शामिल न होने का सीधा मतलब था कि मुग़लिया शान में गुस्ताखी करना। यही गुस्ताखी गढ़वाल रियासत के तत्कालीन राजा महिपत शाह ने भी की और शाहजहां की दुश्मनी मोल ले ली।

कुमाऊं युद्ध में मारे गए महिपत शाह
इस घटना के कुछ समय बाद ही राजा महिपत शाह कुमाऊँ युद्ध में मारे गए। उस समय पृथ्वीपति शाह की उम्र बहुत ही कम थी। लिहाज़ा रियासत की कमान रानी कर्णावती के हाथों में आई। कभी इस दरबार की शान रहे रिखोला लोदी जैसे वीरों की भी अब तक मौत हो चुकी थी। ऐसे में ये चर्चाएं तेजी से फैलने लगी कि एक महिला के नेतृत्व में गढ़वाल रियासत अब अपने सबसे कमजोर दौर में आ पहुंची है, जिसे कभी भी आसानी से जीता जा सकता है।

गढ़वाल पर आक्रमण करने की बनाई रणनीति
जब ये चर्चाएं मुग़ल दरबार तक पहुँची तब शाहजहां ने अपना बदला लेने के लिए गढ़वाल रियासत को सबक़ सिखाने की ठानी। हालांकि इसके अलावा किसी ने मुगल शासकों को बताया कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में सोने की खदानें हैं। शाहजहाँ ने इसका फायदा उठाकर गढ़वाल पर आक्रमण करने का फैसला किया। उन्होंने अपने एक सेनापति नजावत खान को यह जिम्मेदारी सौंपी।

डोईवाला माजरी से ऋषिकेश पहुंचे थे मुगली सेना
गढ़वाल पर चढ़ाई करने से पहले नजावत खान ने सिरमौर के राजा मंधाता प्रकाश को अपने पक्ष में किया। सिरमौर राज्य से यमुना को पार करते हुए वो दून घाटी में घुसे और शेरगढ पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद मुग़लों ने कालसी के पास स्थित कानीगढ़ पर क़ब्ज़ा किया और उसे सिरमौर के राजा को उपहार स्वरूप भेंट कर दिया। नजावत खान की फौज लगतार जीतते हुए आगे बढ़ रही थी। संतूरगढ़ पर क़ब्ज़े के साथ ही उन्होंने पूरी दून घाटी को जीत लिया। इसके बाद वो डोईवाला माजरी होते हुए ऋषिकेश पहुंचे और ननूरगढ़ पर क़ब्ज़ा कर लिया। ये वही जगह है जहां आज आईडीपीएल कॉलोनी बसी हुई है। उस दौर में यहां एक गढ़वाली क़िला हुआ करता था। इस क़िले पर अपनी जीत दर्ज करने के बाद नजावत खान स्वर्गाश्रम होते हुए गंगा नदी के किनारे-किनारे श्रीनगर की तरफ बढ़ चला था। नजावत खान की फौज में एक लाख पैदल सैनिक और तीस हजार घुड़सवार शामिल थे। जिसका जिक्र ‘निकोलस मानूची’ की लिखी ‘स्टोरिया डो मोगोर’ में भी मिलता है।

मुगलों और गढ़वाल की रानी कर्णावती के बीच संघर्ष
देवप्रयाग पहुंचने से पहले ही उसने गंगा किनारे अपना पड़ाव डाला और रानी कर्णावती को संदेश भिजवाया कि वो बिना लड़े ही आत्मसमर्पण कर दे। जिसकी एक शर्त ये भी थी कि रानी को दस लाख रुपए बतौर भेंट चुकाने थे। ये प्रस्ताव आने पर रानी कर्णावती ने उसके पास संदेश भिजवाया कि वह जल्द ही दस लाख रूपये उसके पास भेज देगी। पर किसी को अंदेशा नहीं था कि गणराज्य की ये रानी दुर्गा का साक्षात रूप है। जब युद्ध हुआ तो गढ़वाल के सैनिकों ने मुगल सेना के पांव उखाड़ दिए और जो बचे उनकी नाक कटवा दी गई। यही वजह है कि इसी घटना के बाद रानी कर्णावती को नाककटी रानी के नाम से जाना गया।

अपमान के बाद नजावत खान ने की ख़ुदख़ुशी
इस अपमान के बाद नजावत खान ने ख़ुदख़ुशी कर ली थी। इस घटना की पुष्टि मुगल दरबार के राजकीय विवरण महारल उमरा में मिलता है। कहा जाता है कि शाहजहां इस हार से काफी शर्मसार हुआ था। शाहजहां ने बदला लेने के लिए बाद में अरीज खान को गढ़वाल पर हमले के लिये भेजा था, लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया था। बाद में शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल पर हमले की नाकाम कोशिश की थी।

रानी कर्णावती के नाम पर बसाया गया करनपुर
रानी कर्णावती के शासन में दून की राजधानी नवादा में हुआ करती थी। यहां उनका एक खूबसूरत महल भी था। साल 1874 में लिखी गई GRC Williams की किताब ‘Memoir of Dehradun’ में जिक्र मिलता है कि उस वक्त तक भी रानी कर्णावती के महल को नवादा में देखा जा सकता था। लेकिन अब इस पूरे इलाक़े में प्लाटिंग हो चुकी है और रानी कर्णावती के महल के अवशेष तक बाक़ी नहीं हैं। हालांकि उनके नाम की बस एक ही प्रत्यक्ष निशानी आज भी हम सबके बीच है देहरादून का करणपुर इलाका। जिसे रानी कर्णावती के नाम पर करणपुर कहा जाता है। वहीं रानी कर्णावती के प्रतिनिधि अब्जू कुवंर के नाम से अजबपूर गांव बसाया गया था।

राजपुर कैनाल नहर बनावाई थी रानी कर्णावती ने
रानी कर्णावती को इतिहास में उनके शौर्य और पराक्रम के साथ ही उनकी दूरदर्शिता और निर्माण कार्यों के लिए भी याद किया जाता है। देहरादून की पहली नहर राजपुर कैनाल का निर्माण रानी कर्णावती ने ही करवाया था। जिसके जिर्णोद्धार का काम बाद में अंग्रेजों ने किया। रिस्पना के पानी को पूरी दून घाटी तक पहुंचने वाली इस राजपुर कैनाल ने न सिर्फ़ लोगों को पीने का पानी पहुंचाया, बल्कि घाटी में कृषि को बेहद उपजाऊ बना दिया था। उत्तराखंड सिंचाई विभाग की वेबसाइट में भी रानी कर्णावती द्वारा बनवाई गई इस नहर का जिक्र मिलता है।

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