बंगाली संस्कृति की पहचान है जात्रागान

काजल राय

दिनेशपुर। दुर्गा पूजा महोत्सव जात्रागान के बगैर अधुरा है। लोक कला का स्वरूप बंगाली बाहुल्य अंचलो में दुर्गा पूजा सहित विभिन्न पूजा व सामाजिकधार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर देखा जा सकता है। बांग्ला संस्कृति और लोककला का जिक्र आते ही जात्रागान का मंच और उस पर अलग-अलग वेषभूषाओं में विभिन्न पात्रों को जीवन्त करते कलाकार याद आ जाते हैं। जात्रागान को बंगाली संस्कृति का दर्पण कहा जा सकता है। बंगाली बाहुल्य क्षेत्रों में दुर्गा पूजा अनुष्ठानों में इस लोक कला का दर्शन किया जा सकता है।

जात्रा गान के कलाकार बताते हैं कि जात्रागना की उत्पत्ती 16वीं शताब्दी में भक्ति आन्दोलन के दौरान चैतन्य महाप्रभु की गायन शैली से हुआ। 1507 ई. में चैतन्य महाप्रभु ने श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में शामिल होने को पश्चिम बंगाल के नदिया के नवद्वीप नगर से पुरी तक की पैदल यात्रा की थी। दिनभर की यात्रा के बाद संध्या समय वे शिष्यों के साथ पड़ाव डालकर रूकते थे और शिष्यों के साथ श्रीकृष्ण की आराधना के गीतों कों गाते हुए इतना तल्लीन हो जाते थे। कि वे स्वयं श्री कृष्ण की भूमिका निभाते हुए उनकी लीलाओं पर गाना गाते थे। कालान्तर में चैतन्य महाप्रभु की इस यात्रा (जात्रा) अवधि में गाए गये गीत (गान) सम्पूर्ण बंगाल में जात्रागान के रूप में विख्यात हुए।

देश विभाजन के बाद बंगाली शरणार्थियों के साथ यह विधा उत्तराखण्ड में भी आयी। जनपद ऊधम सिंह नगर के दिनेशपुररुद्रपुरशक्तिफार्मखटीमाउत्तर प्रदेश के रामपुर के स्वर्गफार्म व पीलीभीत जनपद के कई गांवों में इसका मंचन दुर्गा पूजा के दौरान होने लगा। हालांकि यहां पर इसका स्वरूप काफी बदल गया है। पेशेवर कलाकारों की जगह मौसमी और पार्ट टाइम कलाकरें ने ले ली है और कई जगहों पर खुले मंचों की जगह परदे से घिरे मंच बनाए जाने लगे हैं। लेकिन इसके बावजूद जात्रागान की लोकप्रियता आज भी अपनी जगह बरकरार है और जात्रागान के बिना दुर्गा पूजा महोत्सव अधूरा माना जाता है।

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