भारत की पहली महिला शिक्षक, जिसने शिक्षा भी बदली और समाज भी

नमिता बिष्ट

भारत में प्राचीन समय से ही गुरु परंपरा चली आ रही है। गुरुओं की महिमा का वृत्तांत ग्रंथों में भी मिलता है। हालांकि माता पिता हमें इस खूबसूरत दुनिया में लाते है जिसका ऋण हम किसी भी रूप में उतार नहीं सकते, लेकिन जिस समाज में रहना है, उसके योग्य हमें केवल गुरु ही बनाते हैं। हमारे जीवन में गुरु का बड़ा महत्व होता है। बिना गुरु के ज्ञान को पाना असंभव है। इसलिए हर साल 5 सितंबर को देश के पहले उपराष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रुप में मनाया जाता है। आज हम आपको देश की पहली महिला शिक्षिका के बारे में बताने जा रहे हैं जिनको भारत में लड़कियों को शिक्षित करने के लिए समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों के पत्थर भी खाने पड़े।…….

भारत की पहली महिला शिक्षिका

नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री सावित्रीबाई फुले को भारत की सबसे पहली महिला शिक्षक कहा जाता है। सावित्री बाई फुले वह महिला थीं, जिन्होंने भारत में लड़कियों की शिक्षा पर जोर दिया। उनके हक के लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने अपने पति महात्मा ज्योतिबा फुले संग मिलकर स्त्रियों के अधिकारों और उन्हें शिक्षित करने के लिए क्रांतिकारी प्रयास किए।

9 साल की छोटी उम्र में हुई थी शादी

सावित्रीबाई फुले जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थिात नायगांव नामक छोटे से गांव में पैदा हुई थीं। महज 9 साल की छोटी उम्र में पूना के रहने वाले ज्योतिबा फुले के साथ उनकी शादी हो गई। शादी के समय सावित्री बाई फुले पूरी तरह अनपढ़ थीं, तो वहीं उनके पति तीसरी कक्षा तक पढ़े थे।

उस दौर में नहीं था महिलाओं को पढ़ने का हक

उस दौर में सावित्रीबाई फुले पढ़ने का सपना देख रही थीं, तब दलितों के साथ बहुत भेदभाव होता था। उस वक्त की एक घटना के अनुसार एक दिन सावित्री अंग्रेजी की किसी किताब के पन्ने पलट रही थीं, तभी उनके पिताजी ने देख लिया। वो दौड़कर आए और किताब हाथ से छीनकर घर से बाहर फेंक दी  इसके पीछे ये वजह बताई कि शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही है, दलित और महिलाओं को शिक्षा ग्रहण करना पाप था बस उसी दिन वो किताब वापस लाकर प्रण कर बैठीं कि कुछ भी हो जाए वो एक न एक दिन पढ़ना जरूर सीखेंगी।

स्कूल के लिए निकलीं तो खाए पत्थर

19वीं सदी में समाज में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा-विवाह जैसी कुरीतियां व्याप्त थी। सावित्रीबाई फुले का जीवन बेहद ही मुश्किलों भरा रहा। दलित महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने, छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाने के कारण उन्हें एक बड़े वर्ग द्वारा विरोध भी झेलना पड़ा। वह स्कूल जाती थीं, तो उनके विरोधी उन्हें पत्थर मारते थे। कई बार उनके ऊपर गंदगी फेंकी गई। सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं और स्कूल पहुंच कर गंदी हुई साड़ी बदल लेती थीं। आज से 160 साल पहले जब लड़कियों की शिक्षा एक अभिशाप मानी जाती थी उस दौरान उन्होंने महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे में पहला बालिका विद्यालय खोल पूरे देश में एक नई पहल की शुरुआत की।

कुरीतियों के खिलाफ उठाई आवाज

सावित्रीबाई ने 19वीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों के खिलाफ अपने पति के साथ मिलकर काम किया। सावित्रीबाई ने आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की अपने घर में डिलीवरी करवा उसके बच्चे यशंवत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया। दत्तक पुत्र यशवंत राव को पाल-पोसकर इन्होंने डॉक्टर बनाया। बता दें कि सावित्रीबाई फुले एक कवियत्री भी थीं। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत भी माना जाता है। उन्होंने देश के पहले किसान स्कूल की भी स्थापना की थी।

1848 में पुणे में खोला था पहला बालिका विद्यालय

ज्योतिराव और सावित्री बाई फुले ने साल 1848 में पुणे में बालिका विद्यालय की स्थापना की। इसमें सावित्री बाई फुले प्रिंसिपल के साथ शिक्षिका भी बनीं। 1897 में पुणे में प्लेग फैल गया। इस महामारी के मरीजों की सेवा करने के लिए फुले दंपती ने एक क्लिनिक खोला। यहां वह खुद मरीजों की सेवा करती थीं। इस दौरान वह खुद प्लेग की चपेट में आ गईं। उनकी हालत तेजी से बिगड़ी और 10 मार्च, 1897 को उनका निधन हो गया।

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