Opinion: मध्य प्रदेश में पंचायत चुनाव की 360° की राजनीति, तुम भी जीते हम भी जीते

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मध्य प्रदेश में पंचायत चुनाव की राजनीति 360° घुमकर एक बार फिर वर्ष 2019 के उस परिसीमन पर आकर अटक गई है, जो कमलनाथ सरकार द्वारा कराया गया था. सरकार के यू-टर्न से ओबीसी आरक्षण के मामले में कांग्रेस की भी जीत हो गई और भाजपा भी चोखे रंग को लेकर आशान्वित है. परिसीमन निरस्त करने से लेकर बहाल करने तक की इस पूरी प्रक्रिया में चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्था के सामने कई तरह की कानूनी अड़चन आ खड़ी हुई हैं. यद्यपि एक बार चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद उसे रोकने की संभावनाएं बहुत कम रहती हैं.

मध्य प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव को रोकने के लिए हाई कोर्ट में कई याचिकाएं पिछले एक माह में लगी हैं. राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद हाई कोर्ट ने कई याचिकाओं पर अपने आदेश में यह स्पष्ट किया है कि प्रक्रिया शुरू होने के बाद उस पर रोक नहीं लगाई जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने भी ओबीसी आरक्षण के बारे में दिए गए अपने आदेश में साफ तौर पर कहा है कि सामान्य सीटों पर चुनाव की प्रक्रिया तय कार्यक्रम के अनुसार जारी रहेगी.  सुप्रीम कोर्ट द्वारा ओबीसी आरक्षण पर रोक लगाए जाने के आदेश के बाद कांग्रेस लगातार यह दावा कर रही है कि कोर्ट में याचिकाकर्ताओं ने ओबीसी आरक्षण को किसी भी तरह की चुनौती नहीं दी है. याचिकाकर्ता के वकील कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा हैं. केवल इस कारण ही भाजपा ओबीसी के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में लगी हुई है.

दो चरणों में बची है सिर्फ मतदान की प्रक्रिया

राज्य में पंचायत चुनाव तीन चरणों में हो रहे हैं. राज्य में पंचायतों के चुनाव पिछले दो साल से लगातार टल रहे हैं. नवंबर में शिवराज सिंह चौहान की सरकार द्वारा इस अध्यादेश को निरस्त किए जाने के बाद राज्य निर्वाचन आयोग ने वर्ष 2014 की आरक्षण की स्थिति के आधार पर चुनाव की प्रक्रिया शुरू की है. दो चरणों का केवल मतदान होना शेष है. तीसरे चरण की प्रक्रिया तीस दिसंबर को शुरू हो जाएगी. सरकार के स्तर पर चुनाव रोकने के तमाम प्रयास अब तक असफल रहे हैं. विपक्ष का साथ भी सरकार को मिला हुआ है. ओबीसी आरक्षण के बिना चुनाव न कराने का संकल्प भी विधानसभा पास कर चुकी है.

पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने की थी पहल

इस तरह का प्रस्ताव लाने का प्रस्ताव पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का था. चुनाव से जुड़े पूरे घटनाक्रम में दिलचस्प यह है कि सरकार ने वर्ष 2019 के परिसीमन को समाप्त करने का जो अध्यादेश जारी किया था, उसे ही कानूनी मान्यता दिलाने के लिए विधानसभा में पेश नहीं किया गया. विधानसभा का शीतकालीन सत्र 24 दिसंबर को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया. सत्र स्थगित होते ही अध्यादेश का प्रभाव समाप्त हो गया. अब सरकार ने अध्यादेश निरस्त किए जाने के लिए नया अध्यादेश जारी किया है.

चुनाव आयोग ले रहा विधि विशेषज्ञों से सलाह

सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही इस बात पर एक मत हैं कि राज्य में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए. राज्य में अभी ओबीसी को चौदह प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है. अनुसूचित जाति और जनजाति को कुल 36 प्रतिशत आरक्षण है. इस तरह से कुल आरक्षण पचास प्रतिशत की सीमा में है. ओबीसी का आरक्षण बढ़ाए जाने की राजनीति कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार में शुरू हुई थी. कमलनाथ सरकार के 27 प्रतिशत आरक्षण किए जाने के फैसले को हाई कोर्ट ने रोक रखा है. सोमवार को भी हाई कोर्ट में इस पर बहस हुई. लेकिन,आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने पर लगी रोक को नहीं हटाया. कांग्रेस और कमलनाथ दोनों ही आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 27 प्रतिशत बहाल कराने के पक्ष में है. कांग्रेस को इसमें अपना राजनीतिक लाभ दिखाई दे रहा है.

सीएम शिवराज के लिए चुनौती है आरक्षण

शिवराज सिंह चौहान के लिए ओबीसी का आरक्षण 27 प्रतिशत बरकरार रखना किसी चुनौती से कम नहीं है. उनकी सरकार में आरक्षण कम होता है तो नुकसान पार्टी को भी होगा. लिहाजा वे पंचायत चुनाव के आरक्षण के जरिए अपनी साख बचाने में लगे हुए हैं. यद्यपि राज्य निर्वाचन आयोग ने चुनाव प्रक्रिया रोके जाने के बारे में कोई आदेश जारी नहीं किया है. आयोग विधि विशेषज्ञों से सलाह ले रहा है. सरकार द्वारा परिसीमन को बहाल किए जाने का आदेश उस वक्त आया है जब केवल मतदान की प्रक्रिया शेष बची है. ऐसे में चुनाव नहीं भी रूकते तो भी शिवराज सिंह चौहान यह तो कह ही सकते हैं कि उन्होंने चुनाव प्रक्रिया को रोकने का प्रयास तो किया. कांग्रेस कोर्ट नहीं जाती तो आरक्षण बरकरार रहता. पंचायत चुनाव में ओबीसी के लिए जो सीटें आरक्षित की गईं थीं, उन पर अभी चुनाव नहीं हो रहा है. इन सीटों पर चुनाव उसी स्थिति में संभव है जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार ओबीसी के लिए आरक्षित सीटें सामान्य वर्ग में बदली जाएं.

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