Mumbai: ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘द केरल स्टोरी’ जान-बूझकर नहीं देखीं- विशाल भारद्वाज

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म निर्माता विशाल भारद्वाज ने कहा कि उन्होंने “द कश्मीर फाइल्स” और “द केरल स्टोरी” जैसी फिल्में नहीं देखीं क्योंकि वे ऐसे संवेदनशील विषयों से दूर रहना चाहते हैं। “द कश्मीर फाइल्स” (2022) और “द केरला स्टोरी” (2023) दोनों ही बड़ी कमर्शियल हिट थीं, लेकिन कई लोगों ने इन्हें प्रोपेगेंडा वाली फिल्में बताया।

विशाल भारद्वाज ने कहा, “मैंने ‘द कश्मीर फाइल्स’, ‘द केरला स्टोरी’ नहीं देखी और मैंने उन्हें जानबूझकर नहीं देखा। इन फिल्मों के बारे में जिस तरह की बातें मैं सुन रहा था, मैं उससे प्रभावित नहीं होना चाहता था। मैंने ये मेरे दोस्तों और मेरे जानने वाले लोगों से सुना था कि ये प्रोपेगेंडा फिल्में हैं।”

“तो, मैं बस इससे दूर रहना चाहता था क्योंकि, मेरे लिए, ये एक बहुत ही संवेदनशील विषय है। अगर इतनी ज्यादा नकारात्मकता है तो मैं इस नकारात्मकता से दूर रहना चाहता हूं, मुझे अपनी शांति पसंद है। इसलिए, मैं ऐसा नहीं करना चाहता था।”

अनुपम खेर, दर्शन कुमार, मिथुन चक्रवर्ती और पल्लवी जोशी की प्रमुख भूमिकाओं वाली “द कश्मीर फाइल्स” 1990 के दशक में घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के इर्द-गिर्द घूमती है। इसका निर्देशन विवेक अग्निहोत्री ने किया था।

सुदीप्तो सेन निर्देशित “द केरल स्टोरी” में ये दिखाया गया है कि कैसे केरल की महिलाओं को आतंकवादी समूह इस्लामिक स्टेट (आईएस) धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करता है और संगठन में भर्ती करत है।

उन्होंने कहा, “मैं चाहता हूं कि मेरे फिल्म निर्माता समुदाय ऐसी कहानियों को संवेदनशील तरीके से लें और इसे प्रचार के रूप में इस्तेमाल न करें।” ये पूछे जाने पर कि क्या हिंदी सिनेमा में पिछले कुछ सालों में फिल्म निर्माण का उद्देश्य बदल गया है, उन्होंने कहा कि ये लाजिमी है क्योंकि समाज भी बदल रहा है।

उन्होंने कहा, “सिनेमा एक ऐसी चीज है जिसे आप जैसे चाहें वैसे इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं और देख रहे हैं, तो हमें स्वीकार करना चाहिए कि लोग बदल रहे हैं। हम एक समाज के रूप में बदल रहे हैं।”
देश में हुई कई दुखद लिंचिंग घटनाओं का हवाला देते हुए विशाल भारद्वाज ने कहा कि लोग अब उनसे उतने प्रभावित नहीं होते, जितने पहले हुआ करते थे।

उन्होंने कहा, “क्या हमने कभी सोचा था कि हमें लिंचिंग की खबरों की आदत हो जाएगी? पहले, जब ऐसा होता था, तो हम कहते थे, ‘ये भीड़तंत्र कैसे हो सकता है? कुछ लोग इकट्ठा होकर किसी को कैसे मार सकते हैं? कानून व्यवस्था कहां है? लेकिन अब, हमें इसकी आदत हो गई है। अब, ये ऐसा है, लिंचिंग यहां हुई है या वहां हुई है इसका हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता क्योंकि हम इसे स्वीकार कर रहे हैं। हम अब इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं।”

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