Uttarakhand: उत्तराखंड ने 25 वर्षों में विकास, संघर्ष और असफलताओं की मिली जुली यात्रा तय की है। साल 2000 में बने इस राज्य ने आर्थिक प्रगति की लेकिन पलायन, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और स्वास्थ्य जैसी समस्याएं अब भीहैं।
उत्तराखंड, जो हिमालय की गोद में बसा हुआ खूबसूरत पर्वतीय राज्य है, 9 नवंबर 2025 को अपनी रजत जयंती यानी 25 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा है। इस राज्य का गठन लंबी लड़ाई, आंदोलन और भारी बलिदानों के बाद 9 नवंबर 2000 को हुआ था।
शुरुआत में “उत्तरांचल” नाम से बने इस राज्य का 2007 में नाम बदलकर “उत्तराखंड” रखा गया क्योंकि यह नाम क्षेत्र की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहचान से भली-भांति मेल खाता है। उत्तराखंड की 25 साल की यह यात्रा राजनीतिक बदलावों, आर्थिक विकास, सामाजिक संघर्ष, और पर्वतीय चुनौतियों से भरी रही है, जिसमें जनता की अपेक्षाएं और असलियत दोनों ही उजागर होती हैं।
राज्य की स्थापना और नाम परिवर्तन-
उत्तराखंड का गठन एक लंबे आंदोलन का परिणाम था, जिसमें मुख्य भूमिका 1990 के दशक की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना, बेरोजगारी, शिक्षा-स्वास्थ्य के अभाव और क्षेत्रीय अलगाव ने निभाई। 1994 के मसूरी, खटीमा और रामपुर तिराहा जैसे गोलीकांड राज्य आंदोलन के काले अध्याय बनकर सामने आए। शहीदों के इन बलिदानों का ही परिणाम था कि 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड भारत का 27वाँ राज्य बना। राज्य बनने के बाद विभिन्न जन संगठनों और आम जनता के दबाव ने उत्तरांचल के नाम को बदलकर “उत्तराखंड” रखवाया, जो हर उत्तराखंडी के गौरव, पहचान और स्वाभिमान का प्रतीक बन गया।
राजनीतिक बदलाव और स्थिरता-
25 वर्षों में उत्तराखंड में राजनीतिक अस्थिरता कायम रही और 10 से अधिक मुख्यमंत्री बदल चुके हैं। दलबदल, सत्ता संघर्ष, गठबंधन और अस्थिर सरकारों ने कई बार विकास की गति को बाधित किया। अनेक बार विधानसभा सत्र स्थगित या औपचारिकता बनकर रह गए तथा जनता का असंतोष गहराता गया, आम लोगों की धारणा में यह अब एक स्थायी चिंता बन चुकी है।
आर्थिक विकास-
उत्तराखंड की GDP 2000 में 14,500 करोड़ रुपये से 2025 में करीब 3.78 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच गई है और प्रति व्यक्ति आय लगभग 2.74 लाख रुपये के करीब है। औद्योगीकरण, पर्यटन, सड़क नेटवर्क, MSME, डिजिटल गवर्नेंस एवं महिलाओं के स्वरोजगार में बड़ी प्रगति दिखती है। लेकिन गांव-गांव की हकीकत देखें तो विकास का यह उजाला मुख्यत: शहरों और मुख्य मार्गों तक सिमट गया है। अधिकतर पहाड़ी गांवों में आज भी सड़क, अस्पताल, पानी, मार्केट जैसी मूलभूत सुविधाएं अधूरी हैं। किसानों को बाजार, बच्चों को अच्छी पढ़ाई, युवाओं को स्थानीय रोजगार और मरीजों को प्राइमरी ट्रीटमेंट के लिए भारी जद्दोजहद करनी पड़ती है।
पलायन-
पलायन उत्तराखंड का सबसे बड़ा सामाजिक और आर्थिक संकट बन चुका है। 1,700 से अधिक गांव आंशिक या पूरी तरह खाली हो चुके हैं और 3 लाख लोग स्थायी रूप से मैदानों की ओर जा चुके हैं। पलायन के प्रमुख कारणों में स्थानीय रोजगार की कमी, कृषि में घाटा, स्वास्थ्य और शिक्षा का अभाव, जंगली जानवरों का डर, और बुनियादी सुविधाओं की खराब स्थिति आती है। यह न केवल सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित करता है, बल्कि स्थानीय संस्कृति व रीति-रिवाज भी खतरे में डालता है।
पेपर लीक-
उत्तराखंड की भर्ती परीक्षाओं में पेपर लीक, नकलबाजी और निरस्त प्रक्रियाएं युवाओं के लिए नया मानसिक आघात बनी हैं। UKSSSC, पुलिस, पटवारी, शिक्षक जैसी दर्जनों भर्तियों में पेपर लीक या नकल के मामले सामने आए और कई बार परीक्षा निरस्त हुई। इस वजह से लाखों युवाओं का श्रम, समय और जीवन की आशा बिखर गई। युवा सवाल कर रहे हैं कि क्या ये वही पारदर्शी, ईमानदार व्यवस्था है, जिसका सपना राज्य आंदोलन के शहीदों ने देखा था? हालांकि नकल विरोधी कानून भी उत्तराखंड में अस्तिव में आया है।
लेकिन उसके बावजूद हाल ही में , पटवारी का पेपर लीक हुवा था। जिसे लेकर युवा फिर आंदोलन के लिए एकत्रित हुए। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के सीबीआई जांच के आश्वाशन के बाद आंदोलन खत्म हुआ था ।
गैरसैंण: अधूरी राजधानी-
राज्य आंदोलन के केंद्र में गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग थी। 2020 में इसे औपचारिक रूप से ग्रीष्मकालीन राजधानी का दर्जा तो मिल गया, लेकिन असल सच्चाई है कि आज भी गैरसैंण में साल भर में केवल कुछ ही विधानसभा सत्र होते हैं और शेष प्रशासनिक गतिविधियां देहरादून में केंद्रित हैं। नेता केवल औपचारिकता के लिए गैरसैंण जाते हैं और वहां अधिक ठहरते नहीं। स्थानीय जनता खुद को छला हुआ महसूस करती है और गैरसैंण को केवल “नाम की राजधानी” मानती है।