देहारदून। उत्तराखंड की नदियां जबर्दस्त बदलाव से गुजर रही हैं। आबादी और विकास के दबाव के कारण हमारी बारहमासी नदियां मौसमी बन रही हैं। कई छोटी नदियां पहले ही गायब हो चुकी हैं। बाढ़ और सूखे की स्थिति बार-बार पैदा हो रही है क्योंकि नदियां मानसून के दौरान बेकाबू हो जाती हैं और बारिश का मौसम खत्म होने के बाद गायब हो जाती हैं।
300 से ज्यादा नदियों के अस्तित्व पर संकट
उत्तराखंड में बदलते मौसम का प्रभाव अब नदियों पर पड़ रहा है। उत्तराखंड की 353 गैर हिमालयी और बरसाती नदियों का अस्तित्व संकट में आ गया है। स्थिति ये है कि वर्षा पर निर्भर रहने वाली सैकड़ों नदियां खत्म होने की कगार पर हैं। मानसूनकाल में भी इन नदियों में पर्याप्त पानी नहीं है। शोध के मुताबिक, इन नदियों के उद्गम स्रोतों में पानी साल-दर-साल घट रहा है। इन नदियों में हालात नहीं सुधरे तो अगले 20 साल में कई नदियों का अस्तित्व ही खत्म हो सकता है। और अगर ये नदियां खत्म होती हैं तो ईको सिस्टम भी खासा प्रभावित होगा।
इंसानी दखल ने बढ़ाई चिंता
उत्तराखंड में ग्लेशियर से निकलने वाली सैकड़ों नदियां बारिश पर निर्भर है। लेकिन, बीते कुछ सालों में नदियों का गायब होने की कगार पर आने की वजह मौसम में बदलाव आना है तो इसमें इंसानी दखल भी मुख्य कारण है। क्योंकि हमारी-आपकी जेब और घरों से निकला छोटा-बड़ा कूड़ा नदियों की कोख में जमा हो रहा है। वर्षभर हम जो कूड़ा-करकट, पर्यावरण के लिए घातक प्लास्टिक इधर-उधर फेंकते हैं, वह छोटे-छोटे गाड़-गदेरों, बरसाती नालों और छोटी नदियों से होते हुए बड़ी नदियों में समा जाता है। सेनेटरी पैड्स सहित प्लास्टिक की खाली बोतलें और यहां तक कि मृत पशुओं के अवशेष भी नदियों में बहाए जा रहे हैं।
लापरवाही से होगा बड़ा नुकसान
हालांकि राज्य में सरकारी मशीनरी नदियों के संरक्षण के प्रति काम कर रही है, लेकिन जितनी गंभीरता से कार्य करना चाहिए, उतनी गंभीरता नहीं दिखाई देती है। इसका ज्वलंत उदाहरण है कि राज्य में चल रही बड़ी सड़क परियोजनाओं में सड़क निर्माण के दौरान पहाड़ों के कटान से निकला मलबा चिन्हित डंपिंग जोन में न डालकर सीधे नदियों में ही डाला जा रहा है। यही गाद के रूप में नदी तल में जमा होकर बाढ़ और आपदाओं को जन्म देता है। इससे जलीय जीवों के जीवन के साथ ही नदियों के अस्तित्व को भी खतरा पैदा हो रहा है।
ठंडे बस्ते में गई नदियों के पुनर्जीवन की योजना
उत्तराखंड सरकार ने राज्य में कई नदियों के पुनर्जीवन की घोषणा की थी। इनमें कुछ नदियों के संरक्षण की दिशा में प्रयास भी शुरू किए गए हैं। जिसमें देहरादून की ऋषिपर्णा (रिस्पना) और बिंदाल नदी प्रमुख हैं। लेकिन समय बीतने के साथ ही ये योजनाएं ठंडे बस्ते में जाती हुई नजर आ रही हैं। राज्य में प्रवाहित होने वाली नदियों की बात करें, जिनका उद्गम राज्य का हिमालयी क्षेत्र है तो कुल डेढ़ दर्जन प्रमुख नदियां यहां से निकली हैं। इनकी कुल लंबाई 2358 किमी है। लेकिन यह नदियां भी लगातार सिकुड़ती जा रही हैं। जबकि एक दर्जन से अधिक सहयोगी नदियां विभिन्न कारणों से अपना अस्तित्व खो चुकी हैं या लुप्तप्राय: होने की कगार पर हैं।
गंभीरता से प्रयास करने की जरूरत
नदियों के विलुप्त होने का कारण प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय छेड़छाड़ है। हम जितना नदियों से दूर रहेंगे, नदियां उतनी ही निर्मल और अविरल होंगी। ऋग्वेद में जिन 21 नदियों का उल्लेख है, वे सभी भारत की पुरातन संस्कृति का हिस्सा हैं। हालांकि केंद्र सरकार सहित कई सामाजिक संगठन नदियों के संरक्षण की दिशा में कार्य कर रहे हैं, लेकिन हमें नदियों के संरक्षण संवर्धन की दिशा में और अधिक गंभीरता से कार्य करने के प्रयास करने होंगे।
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