उत्तराखंड का वह गांव, जहां ग्रामीणों को पूजा करने के लिए लेनी पड़ती है सरकार से अनुमति

भारत चीन 1962 युद्ध के बाद विस्थापित हुए जाट भोटिया समुदाय के तीन गाँव के ग्रामीण आज भी हर साल अपने देवी देवताओ की पूजा के साथ अपनी संस्कृति की झलक देखने को मिली। भारत-चीन सीमा पर स्थित जादूंग और नेलांग गांव में भोटिया और जाड़ समुदाय के लोग अपनी देवी-देवताओं की डोली लेकर हर साल चीन सीमा बॉर्डर पर पहुचते है। जहां महिलाओं और पुरुषों ने पांडव चौक के साथ ही रिंगाली देवी चौक में रांसो-तांदी नृत्य प्रस्तुत कर आराध्य देव को प्रसन्न कर बॉर्डर पर अपनी पौराणिक संस्कृति के कई रंग बिखेरते है। इस अवसर पर ग्रामीणों ने लाल देवता, चैन देवता और रिंगाली देवी की विधि विधान से पूजा अर्चना करते है । सीमा पर तैनात आइटीबीपी के जवान भी इस पूजा अर्चना में शामिल हुए।भारत चीन युद्ध के दौरान 1962 में जादूंग, नेलांग और कारछा गांव से रह रहे भोटिया और जाड़ समुदाय के ग्रामीणों को हटाया गया था। तब ये ग्रामीण बगोरी, डुंडा और हर्षिल आ गए थे। लेकिन इनके स्थानीय देवता आज भी वहीं हैं। प्रति वर्ष ये ग्रामीण अपने देवताओं की पूजा के लिए जाते हैं।  जहां  ग्रामीण पहले नेलांग में रिंगाली देवी की पूजा, अर्चना करते है । करीब एक घंटे तक रिंगाली देवी चौक में रांसो तांदी नृत्य का आयोजन में ग्रामीण अपने देवताओ को पौराणिक वेशभूषा में खुश करने की कोशिश करते है।जिसके बाद जादूंग में लाल देवता और चैन देवता की विधि विधान से पूजा अर्चना करते है। पूजा अर्चना के बाद महिला व पुरुषों ने देवता की डोली के साथ रांसो-तांदी नृत्य किया। इस अवसर पर स्थानीय महिलाओं ने पारंपरिक वेश-भूषा में पौराणिक गीत भी गाए।

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