Nainital: उत्तराखंड में जंगल में लगी आग बार-बार एक चुनौती के तौर पर सामने आती है। जैसे-जैसे पारा चढ़ता है, वन भूमि के बड़े हिस्से आग की चपेट में आ जाते हैं। इससे जैव विविधता, वन्यजीव और इलाके में रहने वाले लोग खतरे में पड़ जाते हैं।
इस मुश्किल से निपटने के लिए उत्तराखंड वन विभाग ने एसओपी यानी मानक संचालन प्रक्रिया शुरू की है, ये अब सभी जिलों में लागू है। वन अधिकारियों को इलाके में बने रहने, तत्काल और लगातार हालात पर नजर रखने और आग की चेतावनी पर तुरंत कार्रवाई करने के निर्देश दिए गए हैं।
रंजन मिश्रा, मुख्य वन्यजीव वार्डन “पीसीसीएफ लेवल तक ऑफिसर को डिफरेंट डिस्ट्रिक्ट में दिया गया। जैसे फॉर एग्जांपल मुझे टिहरी दिया गया है और वो वहां पर टिहरी में जितने डिवीजंस हैं वहां पर जाकर उनको फायर फाइटिंग का क्या इक्विपमेंट्स हैं, उनके वाहन की सुविधा है की नहीं, बजट की सुविधा है की नहीं, फायर वॉचर कितने आपने लगाए हैं, फायर वॉचर का डिस्ट्रीब्यूशन क्या रहेगा, फायर स्टेशन किस प्रकार का कार्य कर रहा है, वायरलेस सिस्टम किस प्रकार का काम कर रहा है और हाइड्रेंट की जरूरत पड़ती है रोड टाइम में तो हमारा फायर टेंडर जो सिस्टम है उनके साथ हमारा ताल मेल रखा जाना। इस प्रकार के बहुत सारे काम हम चारों तरफ से कर रहे हैं।”
अधिकारियों के मुताबिक, उत्तराखंड के गांवों में जंगलों में लगने वाली आग के खतरों के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं।
इलाके में पिरूल के नाम से जानी जाने वाली सूखी चीड़ की पत्तियों को जंगलों में लगने वाली आग की मुख्य वजहों में से एक माना जाता है। प्रशासन ने इनसे निपटने के लिए एक नई पहल का ऐलान किया है।
गांव वालों को पिरूल इकट्ठा करने के लिए 10 रुपये प्रति किलो के हिसाब से भुगतान किया जाएगा। सूखी चीड़ की पत्तियों को पर्यावरण के अनुकूल ब्रिकेट में प्रॉसेस्ड किया जाएगा। इसका इस्तेमाल ईंधन के रूप में किया जा सकता है।