Dehradun: कौडसी गांव की 300 साल पुरानी हवेली बनी इतिहास और विरासत की मिसाल

Dehradun: उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के पास बसे कौडसी गांव की एक 300 साल पुरानी जर्जर हवेली इतिहास और विरासत की मिसाल पेश कर रही है। इस हवेली पर लिपटी बेलें और यहां पसरी खामोशी बीते दौर की यादें खुद में समेटे हैं। इस हवेली को उस दौर में बनाया गया था जब न तो सीमेंट था और न ही आधुनिक निर्माण सामग्री। इसकी दीवारों को उड़द की दाल और चूने के मिश्रण से बनाया गया है जो उस वक्त की पारंपरिक निर्माण तकनीक को दिखाती हैं।

हवेली में इस्तेमाल किए गए लकड़ी के बड़े आकार के टुकड़े अब भी ठोस और अपनी जगह पर जस के तस लगे हुए हैं। इनमें से कई 400 साल से भी ज्यादा पुराने हैं, यह बेहतरीन शिल्पकला की गवाही दे रहे हैं।

हवेली की देखरेख करने वाले शरद कुमार काला का कहना है कि “यह हवेली जो है उस समय बताते हैं हमारे दादाई लोग कि जब ये बनी थी तो उस समय सीमेंट का तो कोई रोल होता नहीं थी। तो चूना, सुर्खी और उड़द दाल की पिट्ठी। सुर्खी होती थी ईंट का चूना सुर्खी बोलते थे उसे। इन सबका मिश्रण कर के वो मसाले के काम आता था। तो उससे इसमें लेंटर पड़े हुए हैं। तो इसमें वो लेंटर को रोकने के लिए साल की लकड़ी यूज कर रखी है। जो अभी भी लगभग 400 से 450 साल तक बदस्तूर है। जहां-जहां सो गल गई वहां से लेंटर टूटा है। लेंटर ये अभी भी इतना मजबूत है कि ये हथौड़े से भी आसानी से टूटने वाला नहीं है।”

हवेली की देखरेख करने वाले बताते हैं कि कौडसी गांव भी करीब 300 साल पुराना है, मुगल शासक औरंगज़ेब के शासनकाल में हरियाणा के थानेश्वर से कुछ लोग यहां आकर बसे थे। उस वक्त इस इलाके में टिहरी रियासत का शासन था और ज़मींदारी व्यवस्था नागाओं के अधीन हुआ करती थी। उन्हीं के संरक्षण में इस हवेली का निर्माण कराया गया था।

“जो हमारी पैदावार होती थी, तो बहुत होता था उड़द बहर्त कास्त कर लागत, जो वो टैक्स देते थे, वोे टैक्स यहां जैसे टैक्स के रूप में यहां उड़द लिया उसे पीस कर के वो बना दिया। यहीं एक ईंट का भट्ठा था पास में ही, यहाँ ईंटें बनती थीं। यहीं पास में ही ईंटें बनाई गईं और ईंटें यहां की मुश्किल से एक से डेढ़ इंच मोटी और आठ से दस इंच लंबी पतली ईंटें वो बनाई जाती थीं। मोटी तो बाद में लगीं। अंदर जो पुरानी हवेली जो 400 साल पुरानी है, उसमें तो पतली ईंटें हैं।”

कौडसी गांव में हरियाणा से आकर बसे इन लोगों ने अपनी भाषा और संस्कृति को आभी संजोए रखा है। गांव में आज भी हरियाणवी बोली सुनने को मिलती है और यहां के पारंपरिक रीति-रिवाजों में भी हरियाणा की झलक देखने को मिलती है। हवेली की देखरेख करने वाले शरद कुमार काला ने बताया कि “गांव वाले सारे वही थे, हम सारे गढ़वाली लोग तो बाद में आए यहां, तो जैसा इनका होता कल्चर, उसी हिसाब के वो बने हुए हैं। आज भी आपने देखा होगा हमारी भाषा जो है, हमारी वहीं है हरियाणवी, हमें गढ़वाली कोई नहीं कहता।”

कौडसी गांव के ज्यादातर युवा नौकरी और व्यवसाय की वजह से बाहर ही रहते हैं। ऐसे में गांव में अब बुजुर्गों की संख्या ही ज्यादा दिखती है। वे उस वक्त को याद करते हैं जब हर तरफ सिर्फ खुशहाली दिखती थी।

कौडसी गांव के स्थानीय लोगों ने बताया कि “तब तो बहुत खुश था भइया उस समय तो। पशु भी था, खेती भी होती थी, सब अनाज होता चना, गेहूं, मटर और सब चीज होता, धान, सब चीज, बहुत अच्छा था। पशु भी रखे थे लोग गाय, भैंस, सब रखे थे। बैल भी रखे थे खेती-बाड़ी के लिए, अब तो बैल भी नहीं है, खेती-बाड़ी है नहीं कुछ नहीं। थोड़ी बहुत करते भी हैं लोग तो उसकी बुआई-कटाई बहुत पड़ती है।”

कौडसी गांव की ये हवेली सिर्फ दीवारों और लकड़ी के टुकड़ों के साथ मौजूद एक जर्जर इमारत नहीं है। बल्कि ये अपने भीतर अनगिनत अनकही कहानियां समेटे हुए है। ये हरियाणा की संस्कृति को उत्तराखंड की धरती से जोड़ने वाली गहरी जड़ों को बयां करती है। इसे सिर्फ यादों के लिए नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए संरक्षित किए जाने की जरूरत है ताकि वे इससे जुड़े इतिहास से रुबरू हो सकें।

 

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