Moradabad: उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद को पूरी दुनिया में पीतल नगरी के नाम से जाना जाता है। यहां ज्यादातर मुस्लिम कारीगर और व्यापारी रहते हैं, जो पीढ़ियों से देश भर के मंदिरों और घरों में इस्तेमाल होने वाले पूजा के सामान बनाते आ रहे हैं। ये कहना गलत नहीं होगा कि पीतल के बर्तनों को बनाना और इनकी बिक्री मुरादाबाद की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है।
पीतल के बर्तनों के थोक विक्रेता सलमान अतीक ने बताया कि “मैं कम से कम ये ब्रास का, पूजा आर्टिकल का काम करते करते 25 से 30 साल हो चुके हैं।ज्यादातर मैं पूजा की थाली ही बनाता हूं जोकि मेरे पास शुरुआत 50 रुपये से लेकर 1400-1500 की थाली है मेरे पास।” अनुमान के मुताबिक, मुरादाबाद के पीतल के बर्तन उद्योग में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पांच लाख से ज्यादा कारीगर और श्रमिक काम करते हैं। हालांकि सस्ती और मशीन से बनी प्रतिकृतियां शहर के पारंपरिक पीतल उद्योग को न सिर्फ चुनौती दे रहे हैं बल्कि उसकी मुश्किलें भी बढ़ा रहे हैं।
इतना ही नहीं, पीतल के बर्तन बनाने में बहुत ज़्यादा मेहनत लगती है और अक्सर इसके लिए मुश्किल हालात में काम करना पड़ता है। पीतल के व्यापारियों के मुताबिक ऐसे काम करने के लिए कुशल कारीगरों को ढूंढ़ना भी मुश्किल होता जा रहा है।
पीतल के बर्तनों के थोक विक्रेता सलमान अतीक ने बताया कि “ऐसा है कारीगर टाइम टू टाइम चेंज करते रहते हैं। जैसा कि हमारा ढलाई है, ढलाई के अंदर आपके गर्मी में कारीगर जो हैं वो बहुत परेशान करते हैं क्योंकि गर्मी होती है। तो ये बैटरी रिक्शा पर चले गए हैं कुछ लोग और कुछ लोग जो हैं अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं, सरकार की पॉलिसी रही है कि बच्चे पढ़े। हमारा ढलैया जो है वो अपने बच्चों को ढलैया नहीं बनाना चा रहा है, वो चाह रहा है मैं अपने बच्चों को पढ़ाओं, अपने बच्चे को बाहर भेजूं और वो अच्छा कुर्सी पर बैठकर काम करें।”
पीतल के बर्तन बनाने में सबसे बेहतर होने का तमगा रखने वाला मुरादाबाद का सदियों पुराना पीतल उद्योग अब मुश्किलों भरे रास्ते पर खड़ा है। बढ़ती लागत, घटता मुनाफा और इस कला से दूर होती युवा पीढ़ी ने इस उद्योग पर गहरा असर डाला है।
राज्य सरकार कौशल प्रशिक्षण, सब्सिडी और मुरादाबाद पीतल के बर्तनों के लिए जीई यानी भौगोलिक संकेत टैग देने जैसी कई पहलों के जरिए बीमार उद्योग में नई जान फूंकने की कोशिश कर रही है। ऐसे में पीतल नगरी की किस्मत काफी हद तक इन कोशिशों की कामयाबी पर टिकी है। साथ ही दुनिया भर में पीतल की दमक बरकरार रहे इसके लिए जरूरी है कि ये उद्योग बदलते वक्त के साथ बेहतर तालमेल बिठाए और खुद को आधुनिक बनाने की राह पर भी चले।