Kargil Vijay Diwas 2022: 23वें कारगिल विजय दिवस पर शहीदों को किया जा रहा याद, जानें कारगिल युद्ध का इतिहास

आज से ठीक 23 साल पहले भारत के रणबाकुंरों ने वीरता और शौर्य की ऐसी गाथा लिखी जिसे देश कभी भी भुला नहीं सकेगा। भारतीय सेना के अदम्य साहस की कहानी है ‘कारगिल युद्ध’। इस साल कारगिल विजय दिवस की 23वीं वर्षगांठ है इस दिन तरह-तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं और मातृ भूमि की सेवा करते हुए शहीद हुए नायकों का सम्मान किया जा रहा है। 
सेना के शौर्य और पराक्रम की गाथा है ‘करगिल युद्ध’  
3 मई सन् 1999 का वो दिन था, जब एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाकिस्तान सेना के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचना दी। जिसके बाद भारतीय सेना की पेट्रोलिंग टीम जानकारी लेने कारगिल पहुँची तो पाकिस्तानी सेना ने उन्हें पकड़ लिया और उनमें से 5 की हत्या कर दी। जिसके बाद कारगिल युद्ध की शुरूआत हुई। जिसे ऑपरेशन विजय के नाम से भी जाना जाता है। ये वो युद्ध था जिसने भारत और पाकिस्ता न के बीच के रिश्तोंे को वो मोड़ दिया था जिसके बारे में कभी किसी ने सोचा नहीं होगा। 18,000 फीट की ऊंचाई पर बैठे दुश्मन के नापाक इरादों को नाकाम कर कारगिल से बाहर खदेड़ना भारतीय सेना के लिए कोई आसान लक्ष्यइ नहीं था। क्योंकि 18,000 फीट की ऊंचाई पर बैठे दुश्मन को भारतीय वायुसेना नहीं बल्कि सेना ने परास्त कर अपना लोहा मनवाया था। कारगिल का यह युद्ध तकरीबन दो महिने चला। जिसमें लगभग 527 रणबाकुंरों ने मां भारती के लिए अपना सवोच्छ बलिदान दिया। 1300 से ज्यादा सैनिक इस जंग में घायल हुए। वहीं पाकिस्तान के इस जंग में लगभग 1000 से 1200 सैनिक खोए। भारत और पाकिस्तान के बीच ये वो संघर्ष था जिसने दुनिया को भारतीय सेना के सामने नतमस्त7क होने पर मजबूर कर दिया था।
1999 का कारगिल युद्ध वो घटना थी, जिसमें पाकिस्तामन ने भारत की पीठ पर छुरा भोंका था। लाहौर घोषणा पत्र के बाद भी पाकिस्ता न ने वो किया था जिसकी उम्मीेद भारत में किसी को नहीं थी। क्योंकि कारगिल की घटना अचानक हुई थी और किसीको भी ऐसे युद्ध की उम्मीद नहीं थी न ही कोई इस युद्ध के लिए तैयार था। कारगिल में 18,000 फीट की ऊंचाई पर बैठा दुश्मन भारतीय सेना की हर हरकत पर नजर रख सकता था। दिन में दुश्म0न सेना की हर गतिविधि को देखता था। जब सेना को पाकिस्तान के घुसपैठ की खबर मिली तुरंत ही घुसपैठियों को भगाने की रणनीति तैयार की गयी। लेकिन 18 हजार फीट की ऊँचाई पर चढ़कर दुश्मन को खदेडना कोई आसान बात नहीं थी। उस समय द्रास सेक्टर में रात को तापमान इतना नीचे तक पहुंच जाता था कि खून भी जम जाए। लेकिम बावजूद इसके सेना ने रात में चढ़ाई करने और दिन में युद्ध लड़ने का फैसला लिया।  मुश्किल परिस्थितियों के बाद भी भारतीय सैनिक रात भी चढ़ते और दिन में दुश्मयन को करार जवाब देते थे। वहीं वायुसेना पूरी सक्रियता के साथ इस युद्ध में शामिल नहीं थी। ऐसे में सेना की मुश्किलें बहुत ज्यांदा थी। लेकिन इसके बाद भी सेना ने बहादुरी से दुश्मेन का सामना किया।
कारगिल में दुश्मनन जिस ऊंचाई पर था वहां से वो लगातार नेशनल हाइवे 1 को निशाना बना रहा था जो द्रास को जम्मूम कश्मीथर और पूरे देश से जोड़ता था। इस हाइवे पर हमला यानी युद्ध में जीत का तय होना। वहीं भारतीय सेना के लिए तोलोलिंग पर कब्जा आसान नहीं था और कब्जा किए बिना दुश्मन को पीछे धकेलना लगभग न मुम्किन। एक-एक ऑफिसर और एक-एक जवान ने इस युद्ध में अपनी जी जान लगा दी। और तोलोलिंग, टाइगर हिल के साथ बटालिक सेक्टएर की अहम चोटियों से पाकिस्तागनी घुसपैठियों को खदे दिखाया। ये भारतीय सेना के लिए वरदान साबित हुआ था। यहां से स्थितियां भारत के पक्ष में आईं और फिर पाकिस्ताखन हार की तरफ बढ़ता गया था। भारतीय सेना ने अदम्य साहस से जिस तरह कारगिल युद्ध में दुश्मन को खदेड़ा, उस पर हर देशवासी को गर्व है। यह सैन्य ऑपरेशन 26 जुलाई यानी आज ही दिन समाप्त हुआ था। 
उत्तराखंड के 75 सैनिकों ने दिया अपना सर्वोच्च बलिदान 

आज देश कारगिल युद्ध की 23 वीं वर्षगांठ मना रहा है। ऐसे में कारगिल युद्ध की वीरगाथा उत्तराखंड की इस वीरभूमि के जिक्र बिना अधूरी है। सूबे के 75 सैनिकों ने इस युद्ध में देश रक्षा में अपने प्राण न्योछावर किए। छोटे राज्य के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। शहादत का यह जज्बा आज भी पहाड़ नहीं भूला है। कारगिल ऑपरेशन में गढ़वाल राइफल्स के 47 जवान शहीद हुए थे, जिनमें 41 जांबाज उत्तराखंड मूल के ही थे। वहीं कुमाऊं रेजीमेंट के भी 16 जांबाज भी शहीद हुए थे। जवानों ने कारगिल, द्रास, मशकोह, बटालिक जैसी दुर्गम घाटी में दुश्मन से जमकर लोहा लिया।

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