Srinagar: जम्मू-कश्मीर में हस्तशिल्प से जुड़े लोगों का कहना है कि उद्योग को नई जान मिली है। इसमें तरह-तरह के कश्मीरी हस्तशिल्पों को भौगोलिक संकेत यानी जीआई टैग मिलने से मदद मिली है। टैग मिलने से खरीदारों के लिए उत्पाद का प्रामाणिक होना तय हो जाता है।
जीआई टैग उन उत्पादों को दिया जाता है, जो किसी खास भौगोलिक जगह में होते हैं और उनमें कुछ खास गुण होते हैं। टैग से उत्पाद को खास पहचान मिलती है। उनकी अवैध नकल नहीं की जा सकती। कश्मीरी कालीन, पशमीना शॉल और पेपर-मैचे जैसे उत्पादों को एक दशक या ज्यादा समय से जीआई टैग मिला हुआ है। इससे पहले खरीदार तय नहीं कर पाते थे कि उत्पाद प्रामाणिक हैं या नहीं।
हस्तशिल्प उत्पादों पर क्यूआर कोड के इस्तेमाल से खरीदार उनकी प्रामाणिकता तय कर सकते हैं। कोड को मोबाइल फोन से स्कैन करके बनाने वालों, निर्यातक और कारीगरों के बारे में पूरी जानकारी मिलती है।
उद्योग से जुड़े लोगों के मुताबिक इस प्रणाली से उत्पादों की नकल करना काफी हद तक कम हो गया है।हालांकि नकली सामानों को पूरी तरह से खत्म करने के लिए अभी और काम करने की जरूरत है।
अधिकारियों के मुताबिक हाल के सालों में करीब 50 हजार शॉल और कालीनों को जीआई टैग दिया गया है। और भी कारीगरों को प्रमाणीकरण के लिए अपने उत्पादों के पंजीकृत होने की उम्मीद है। कश्मीर का हथकरघा और हस्तशिल्प निर्यात लगभग दोगुना हो गया है। ये आंकड़ा 2021-22 में 563 करोड़ रुपये था, जो 2023-24 में 1,162 करोड़ रुपये हो गया है।
भारतीय कालीन प्रौद्योगिकी संस्थान के निदेशक जुबैर अहमद ने कहा कि “कालीनों के लिए भौगोलिक संकेतक के तहत पंजीकरण 2010 में हुआ था। अंतिम पंजीकरण 2016 में किया गया था। तब से, हम अपनी प्रयोगशाला को अपग्रेड करने और खरीदारों को सुनिश्चित करने के लिए एक फुलप्रूफ तंत्र बनाने पर काम कर रहे हैं। जब वे कोई उत्पाद खरीदें तो उन्हें तुरंत क्यूआर कोड प्रणाली से पता चल जाता है कि ये क्या है। खरीदार तय कर सकते हैं कि कालीन असली है या नहीं। क्या ये कश्मीर में बने हैं, और क्या इन्हें बनाने में सही सामान का इस्तेमाल हुआ है या नहीं।”