Bihar: पत्थरकट्टी का शाब्दिक मतलब है पत्थर तोड़ना। बिहार में गया से करीब 30 किलोमीटर दूर इस नाम का एक गांव है। मुमकिन है कि गांव का नाम उस पेशे की वजह से पड़ा हो, जो गांव के हर परिवार से जुड़ा हुआ है। यानी पत्थर तराशना। यहां पत्थर से मूर्तियां बनाने का काम पीढ़ियों से चला आ रहा है। आज भी यहां देवी-देवताओं और नामी-गिरामी लोगों की मूर्तियां बनाने वाले कारीगरों की भरमार है।
उन कारीगरों को अपने पेशे और अपने गांव पर फख्र है। मूर्तियां बना कर हर परिवार रोजाना 800 से एक हजार रुपये तक कमा लेता है। उन्हें यकीन है कि अगर इस हुनर को GI टैग मिल जाए तो उनका कारोबार और बढ़ेगा। कारीगरों ने बताया कि वे GI टैग के लिए आवेदन कर चुके हैं। इसकी प्रक्रिया पूरा होने के कगार पर है।
GI टैग उन उत्पादों को दिया जाता है, जो किसी खास जगह से ताल्लुकात रखते हैं और उनमें उस जगह के खास गुण होते हैं। ये एक किस्म का बौद्धिक संपदा अधिकार है, जो पारंपरिक उत्पादों को अनधिकृत इस्तेमाल से बचाने में मदद करता है और मूल उत्पादकों के लिए बेहतर आर्थिक लाभ सुनिश्चित करता है।
कारीगरो ने कहा, “GI टैग कुछ होता है ज्योग्राफिकल इंडिकेशन। अगर ये मिलता है हमें तो पूरा विश्व हमारे पत्थरकट्टी को ऐसे विदेशी लोग हमारे यहां पर्यटक आते हैं लेकिन ये जो मिलेगा तो लोग आराम से पूरे विश्व के लोग, मेरे गांव को देख सकेंगे और हमारे यहां के बहुमूल्य जगह हैं चीजे, घर वगैरह, बड़े- बड़े बॅाल हैं, ग्रेनाइट काले पत्र की मूर्तियां हैं जो काफी मजबूत होती हैं वो ले जाने में सक्षम होती हैं। तो मैने सबको लोगों को बताया की टेंशन ना लो जब सर्टिफिकेट मिलेगा तो सारे लोगों को समझ में आएगा हमारा काम। हमें तो बहुत खुशी है।”
“GI टैग मिलने से अभी तो कोई फायदा नहीं है। अभी तो उसकी शुरुआत हुई है। सिर्फ टैग मिला है अभी उस पर कोई कार्य नहीं हो रहा है। जब कार्य होगा तो बताएंगे कि भई हमें इसमें कितना लाभ होगा। जैसे हम देश विदेश से जुड़ेंगे तो हमें कोई बड़ा ऑर्डर भी मिलेगा। मतलब हम कम से कम हमारी क्वालिटी जो प्रोडक्ट है वो एक महत्व रख रहा है ना GI टैग मिलने से।”