Moradabad: बदलते दौर में अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहा है मुरादाबाद का पीतल उद्योग

Moradabad: पीतल कारीगरों ने पीढ़ियों से पीतल के बर्तनों पर जटिल डिजाइन तैयार करने की कला को अपनाया है, हालांकि बारीक नक्काशी के साथ तैयार किए गए पीतल के उत्पादों के लिए मशहूर मुरादाबाद का ये उद्योग अब अपनी चमक खोता दिख रहा है। पीढ़ियों पुरानी इस विरासत पर खतरा मंडरा रहा है।

कारीगर कार्यवाल चिरंजी लाल यादव ने कहा कि तो जैसे तैसे सही है लेकिन जो युवा लड़के हैं तो वो जो है रुची कम ले रहे हैं इस काम में नक्काशी के काम में। तो हमारे पास भी काम सीखें तो सीखने के बाद जो है एक्सपोर्ट में वो फर्मों में वो लग गए। इसके बावजूद मैंने कहा कि भई हमने जो आपको काम सिखाया है। तो उसका आपको क्या फल मिला, तो वो बोलते हैं सर जी हमने तो काम छोड़ दिया, हम तो कंप्यूटर के ऑपरेटर का काम कर रहे हैं। वहां पर हमें अच्छी तंख्वाह मिल जाती है।

मुरादाबाद के पीतल उद्योग की ओर युवाओं की कम होती दिलचस्पी की वजह सिर्फ दूसरे उद्योगों में बेहतर वेतन वाली नौकरियां नहीं हैं। इसकी एक वजह पीतल के इन सामानों को बनाने के लिए जरूरी धीरज का गुम होना भी है, कारीगर कई और वजह भी गिनाते हैं।

खूब सिंह यादव, कारीगर कारीगर थोड़े कम होते जा रहे हैं। कारीगर इसलिए कम होते जा रहे हैं क्योंकि मशीन आ गई हैं। जो काम कारीगर एक करता है, वो मशीन कर देती हैं 100 तैयार, कारीगर नहीं कर पाता। तो इसलिए कारीगर कम होते जा रहे हैं। नए कारीगर के हालात तो ये हैं कि वो सीख ही नहीं पाते हैं। उन्हे सिखा दो तो वो जो है ना काम ही नहीं कर पाते।

इनकम नहीं हो पाती मजदूरी नहीं पाल पाती उस टाइम। अब लोग चाहते हैं कि मजदूरी सही हो। मजदूरी में 1000-1200 रुपय डेली मिलने चाहिए लेकिन इसमें नहीं हो पाती।” हालांकि कारीगरों का मानना है कि कई ऐसी सरकारी योजनाएं हैं जो इस उद्योग से जुड़े लोगों के लिए मददगार साबित हो रही
हैं।

खूब सिंह यादव, कारीगर खत्म तो नहीं होगा हम जैसे गवर्नमेंट जो देती है करीब निकालती है वो जोइनें निकालती है, करीब 20 बच्चों को सिखाने के लिए। हम जैसे जो अवार्डी होते हैं, स्टेट अवार्डी, नेशनल अवार्डी, शिल्प गुरू उनके लिए योजना निकालती है कि आप 20 बच्चों को सिखाइए आप काम अपने हाथों से और जो बच्चों को दिया जाता है मंथली उन्हे 500 या 1000 रुपय दिए जाते हैं सीखने के, जो गवर्नमेंट देती है।”

हालांकि सवाल ये है कि क्या इन पारंपरिक कौशलों को संरक्षित करने और मदद देने के लिए मिल रहा सरकारी समर्थन काफी है? और क्या तेजी से बदल रही दुनिया अपने जरूरत से ज्यादा दबावों से आखिरकार मुरादाबाद पीतल उद्योग को गुमनामी में धकेल देगी?

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