Jammu: कश्मीर के गांदरबल जिले में हरमुख-गंगबल झील मंदिर में हराल में श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगा था, मौका था 14,500 फुट की ऊंचाई पर बने मंदिर की सालाना तीर्थयात्रा का। यात्रा का आयोजन हरमुख गंगा गंगबल ट्रस्ट ने किया था। नारानाग बेस कैंप से शुरू हुई तीन दिन की तीर्थयात्रा के दारान सेना, सीआरपीएफ और पुलिस ने कड़े सुरक्षा बंदोबस्त किए थे।
मंदिर की काफी धार्मिक अहमियत है। यहां पूर्वजों का श्राद्ध करने की परंपरा सदियों पुरानी है, 22 किलोमीटर की तीर्थयात्रा में खास कर कश्मीरी पंडितों ने बड़े उत्साह से हिस्सा लिया। माउंट हरमुख समुद्र तल से 16,870 फीट ऊंचा है। इसे ‘कश्मीर का कैलाश’ भी कहा जाता है।
तीर्थयात्रा कठिन होती है। तीर्थयात्रियों को बर्फ से ढके पहाड़ों, दरारों और अक्सर मौसम की बेरुखी का सामना करना पड़ता है। इस बार कुछ विदेशी सैलानी भी यात्रा में शामिल हुए, लोगों ने बुजुर्ग तीर्थयात्रियों के लिए मंदिर तक हेलीकॉप्टर सेवा शुरू करने की मांग की है।
इसके अलावा तीर्थयात्रा की मियाद बढ़ाकर 15 या 30 दिन करने की भी मांग की है, ताकि उन्हें रिलीजस टूरिज्म का फायदा हो। यात्रा के लिए बेहतर ट्रैक और बुनियादी ढांचे की भी मांग की गई है, मान्यता है कि श्राद्ध करने से पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है और उन्हें मुक्ति या मोक्ष मिलता है। ये भी माना जाता है कि श्राद्ध करने से पूर्वजों का आशीर्वाद मिलता है।
श्रद्धालुओं का कहना है कि यह यात्रा हम जो गंगा अष्टमी होती है इसमें हम अपने पूर्वजों को अपना श्राद्ध दिखाते हैं। तो हम गंगबल में आके तो हम गंगबल को हम गंगा मानते हैं। जैसे लोग हरिद्वार में गंगा नदी पर जाकर श्राद्ध दिखाते हैं हम वैसे ही कश्मीर के पंडित गंगबल लेक में। एचजीजीटी महासचिव विनोद पंडिता ने बताया कि यह एक एनुअल यात्रा थी। 2009 से लेकर आज 165वीं एनुअल .यात्रा थी। कश्मीरी हिंदू और कोई पुणे से आया, कोई जम्मू से आया कोई बैंगलोर से आया और भी बाहर से आए और यहां पर पिंडदान और श्राद्ध किया। अपने पूर्वजों को याद किया और जो सैनिक शहीद हुए भारत माता की रक्षा करते-करते कश्मीर के भारत के बाकी हिस्सों में उनके लिए विश्व में प्रार्थना की गई।
तीर्थयात्रियों का कहना है कि “यह जो यात्रा है हर गंगबल, उसकी चट्टान से ही जल बहता है क्योंकि ये लेक है उसको कहते हैं गंगबल और जो हरिद्वार का जा पूरे विश्व में यहां अस्थियां विसर्जित करते हैं, यहां भी कश्मीरी हिंदू 1990 से पहले भी यहां आया करते थे। लेकिन पठान दौर के अंदर उस पर बैन लगाई गई फिर जून 2009 में हमने इसे एक यात्रा का रूप दिया।”