Nalanda: प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय देशों की ‘‘सीमाओं से परे और दुनिया भर के विद्वानों को आकर्षित करने वाला संस्थान’’ होने के साथ-साथ ‘सांस्कृतिक कूटनीति का केंद्र’ भी था। यह कहना है राजनयिक और लेखक अभय के. का। अभय ने अपनी नई किताब “नालंदा: हाउ इट चेंज्ड द वर्ल्ड” (Nalanda: How It Change The World) में नालंदा विश्वविद्यालय के उत्थान, पतन और पुनरुद्धार के साथ-साथ इसके सैकड़ों वर्षों तक दुनिया को दिए गए महत्वपूर्ण योगदान के बारे में बताया है। वर्तमान में विदेश मंत्रालय के तहत भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के उप महानिदेशक के रूप में कार्यरत, राजनयिक बिहार के नालंदा जिले के प्राचीन शहर राजगीर के रहने वाले हैं।
अभय ने दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुए एक कार्यक्रम में इन्टरव्यू के दौरान कहा, ‘‘मुझे लगता है कि इस स्थल पर और अधिक खुदाई की जरूरत है।’’ नालंदा विश्वविद्यालय या नालंदा महाविहार के खंडहर यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों में शामिल हैं। यह सम्मान उसे 2016 में मिला था। यूनेस्को की वेबसाइट के अनुसार, नालंदा महाविहार स्थल पर तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर 13वीं शताब्दी ईसवी तक के मठ और शैक्षिक संस्थान के अवशेष पाए जाते हैं।
अभय के. कहा, ‘‘यह एक ऐसा स्थान था जहां दुनिया भर से लोग आते थे, इकट्ठे होते थे, ज्ञान प्राप्त करते थे और फिर उस ज्ञान को अपने साथ ले जाते थे और अपने देशों में इसका प्रसार करते थे। इसलिए, सांस्कृतिक कूटनीति के लिए नालंदा से बड़ा केंद्र और क्या हो सकता है।’’ राजनयिक ने कहा, ‘‘लेकिन हमारे पास स्वर्णदीप के राजा का एक उदाहरण भी है, जिन्होंने अपने राजदूत बाला बर्मन के माध्यम से पाल वंश के राजा देवपाल से एक मठ के रखरखाव के लिए पांच गांवों को समर्पित करने का अनुरोध किया था, जिसमें स्वर्णदीप के भिक्षु रहते थे।’’
मौजूदा इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप को प्राचीन काल में स्वर्णदीप के नाम से जाना जाता था। अभय ने कहा कि इसके अलावा कई अन्य उदाहरण भी हैं, जैसे कि तिब्बत से एक विद्वान आया और नालंदा में अध्ययन किया, ज्ञान लेकर गया और तिब्बती लिपि और व्याकरण को आकार दिया। उन्होंने बताया कि संत रक्षिता, पद्म संभव का उदाहरण है, ये सभी नालंदा से तिब्बत गए और वहां ज्ञान का प्रसार किया। प्रसिद्ध लेखक और इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल ने “नालंदा: हाउ इट चेंजड वर्ल्ड” (Nalanda: How It Change The World) विषय पर आयोजित चर्चा में हिस्सा लिया। इस दौरान अभय के. की नई किताब चर्चा का मुख्य विषय रही।
बिहार की राजधानी पटना से करीब 98 किलोमीटर दूर 23 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला नालंदा का एक प्राचीन स्थल है। इस पुरातत्व स्थल का संरक्षण, रखरखाव और प्रबंधन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) करता है, जो संस्कृति मंत्रालय के तहत एक स्वतंत्र संस्था है। यूनेस्को की वेबसाइट पर इसके बारे में लिखा गया है, ‘‘इसमें स्तूप, मठ, विहार (आवासीय और शैक्षणिक भवन) और प्लास्टर, पत्थर और धातु से बनी महत्वपूर्ण कलाकृतियां शामिल हैं। नालंदा भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है। यह 800 वर्षों की निर्बाध अवधि तक ज्ञान का संगठित प्रसार करता रहा।’’
राजनयिक ने कहा कि नालंदा ‘‘पहला वैश्विक संस्थान या सीमाविहीन संस्थान’’ था, क्योंकि इसमें विभिन्न देशों के छात्र, कई देशों के शिक्षक थे, इसकी शिक्षाएं और दर्शन ने शेष विश्व की संस्कृतियों और सभ्यताओं को प्रभावित किया। उन्होंने कहा, ‘‘इसलिए, विश्वविद्यालय का विचार नालंदा में ही पैदा हुआ। नालंदा के कई योगदान हैं, एक तरह से इसने विश्व के सांस्कृतिक संगम स्थल के रूप में कार्य किया।’’ उन्होंने प्राचीन काल में भारत आए चीनी यात्री ह्वेनसांग की नालंदा यात्रा का उदाहरण देते हुए कहा कि वह ‘‘नालंदा के महान सूत्र पुस्तकालय से सूत्रों की प्रतिलिपियां लेने’’ के लिए यहां आया था, इसलिए नालंदा ‘‘एक महान आकर्षण’’था और यह दुनिया भर से लोगों को आकर्षित करता था।
अभय से जब पूछा गया कि उन्हें यह पुस्तक लिखने के लिए कहां से प्रेरणा मिली तो उन्होंने बताया, ‘‘हमें नागार्जुन या धर्मकीर्ति या आर्यभट्ट और अन्य के बारे में अधिक जानने की आवश्यकता है। हम अपने महान गुरुओं को भूल गए हैं। यह पुस्तक उसी दिशा में एक पहल है।’’ उन्होंने कहा कि यह पुस्तक ‘‘नालंदा के योगदान’’ और ‘‘नालंदा ने किस तरह से दिशा तय करता है’’ के बारे में है। साथ ही, अपने आठ अध्यायों के माध्यम से, ‘‘यह आपको नालंदा की उत्पत्ति तक ले जाती है, विश्वविद्यालय, मठ विश्वविद्यालय की उत्पत्ति कैसे हुई, यह इतना प्रसिद्ध क्यों हुआ और वहां किस-किस ने अध्ययन किया’’।
अभय ने कहा कि लगभग 200 पृष्ठों की यह पुस्तक ‘‘13वीं शताब्दी में इसके पतन के बाद भी नालंदा की महान निरंतरता या कम से कम नालंदा के विचार को भी रेखांकित करती है। उन्होंने कहा कि यह न केवल जीवित रहा, बल्कि फलता-फूलता रहा, जैसा कि हम आज दुनिया भर में नालंदा के नाम पर संस्थानों में देखते हैं, ब्राजील से लेकर ऑस्ट्रेलिया, कनाडा से लेकर मलेशिया तक, इस प्रकार नालंदा नाम के संस्थान हर जगह पाए जाते हैं।’’ राजनयिक ने नालंदा के महान गौरव को पुनर्जीवित करने के लिए हाल के वर्षों में किए गए प्रयासों और पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा नए नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर के उद्घाटन का उल्लेख किया।
उन्होंने बताया, ‘‘लेकिन उससे बहुत पहले 1951 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पुराने नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों के बहुत करीब नव नालंदा महावीर की नींव रखी थी। इसलिए यह एक ऐसी पुस्तक है जो आपको नालंदा, इसकी उत्पत्ति, इसके उत्थान, इसके पतन और इसकी निरंतरता और आधुनिक विश्व को आकार देने में इसके योगदान की व्यापक तस्वीर प्रस्तुत करती है।’’